कुछ चीजें न याद है और न ख्वाहिस हैं सुनने की. भला उस जमाने में डाइपर रहे होंगें, शोभा डे जैसे हाइ-फाई लोगों ने पहनें होंगे, हम तो नंग-धड़ंग घूमते रहे. दूरदर्शन पे तो डायपर वगैरा के विज्ञापन भी नहीं आते थे, क्या हगीज़ और क्या पैंम्पर्स? इसकी एक वज़ह शायद ये भी रही हो कि कार और फ्लाइट में घूमना फिरना कम था. अब ट्रेन-बसों में तो खिड़की से धार बहाने की बच्चों को आजादी थी. न उम्र रही, और न आज़ादी; ये मलाल रह गया कि डायपर कभी न पहन सके.
विज्ञापन तो क्या थे? सुनील गावस्कर और वेंगसरकर तो छोड़ो, आलोकनाथ तक साबुन के विज्ञापन में. नहाने से जैसे नफरत सी हो गयी. वो तो धन्यभाग्य पहली दफा प्रीति जिंटा एक ऐड में दीखी और जैसे देश में स्नान-क्रांति आ गयी.
डायपर तो एक छोटी कड़ी है. तालीम तो जैसे अधूरी सी रह गयी. अजी आधे तो ऐसे जीये, “बी.ए. हुए, नौकर हुए, पेंशन मिली और मर गये”. बच्चों को वन्डरला (एक फन रिसोर्ट) घूमाने गया. जोश में पानी में छलाँग भी मार दी, और ऊँकडू हो दायें-बायें लात मारने लगा. कई जुगत लगाये. बच्चे तैरते हुये ठिठोली करने लगे. हिम्मत तो देखो! भला कोई अपने बाप पे भी हँसता है? मैं एक बारी छुटपन में शतरंज के खेल में पिताजी पे हँसा. अजी वो थप्पर रसीद करा, कि अगली शाम तक शतरंज खेलने की हिम्मत न बनी. अब ये और बात है, लतखोर प्रवृत्ति थी कि अगली शाम फिर बिसात बिठा ली.
किताबों का शौक था या नहीं, ठीक ठीक याद नहीं. पर पढ़ डाली जो सामने दिखी वो. एक बारी तो रोमानिया का इतिहास तक पढ़ डाला. अब माँ-बाप भी शेखी बघारने में कंधे पे बंदूक रख देते. घर में बर्तन कम, कप-शिल्ड ज्यादा दिखने लगे. कोई बड़ी बात नहीं, अगर मिश्रा अंकल को मेरे क्विज-डिबेट वाली ट्रौफी में चाय पिला दी हो. इसी धक्केबाजी में मेडिकल परीक्षा भी दिला दी. अब तक तो वो मशीन बन गया था, कि एक तरफ से सवाल डालो तो, दूसरी तरफ से जवाब निकले. ये सिलसिला चलता रहा, और मैं पढ़ता रहा. मशीन घिसती, खराब होती, पर धड़धकेल चलती रहती.
अमूमन ऐसे लोगों को रट्टू-घिस्सू, पढ़ाकू कहके भी दुत्कारते हैं. जब जब ये महसूस होता, एक गिटार क्लास या जिम ज्वाइन कर लेता. लेडीज़ हौस्टल के चक्कर मार लेता. या होस्टल सुप्रीटेंडेंट के घर दीवाले में बम फोड़नें में शामिल हो लेता. ऐसा लगा जैसे तालीम दुगुनी हो गयी हो. किताबों मे झुका सर जैसे तन गया हो. मशीन में जैसे जान आ गयी हो.
मतलब जी वो कहते हैं, माँ दा लाडला बिगड़ गया.
हरे-नीले चश्में पहन, कंधे तक बाल बढ़ा जिम मौरीसन सुनने लगा. रॉक शो में जा बाल को आगे-पीछे करने लगा, जैसे वो धोबीघाट की धोबन करती है. परिपक्वता इस मुकाम पे ला देगी, अंदाजा न था. आईना देखा तो जैसे बिहारी टोन में दिल की आवाज आयी, “साला, धोबी बना दिया बे!”.
समाजवाद और साम्यवाद का वकील हूँ. डॉक्टर हो या धोबी, तालीम तो तालीम है. मेरी दकियानूशी तालीम बदली. और देश भी तो कच्छे से डाइपर तक आ गया.
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एक शिरकत अंग्रेजी में भी