एकदिवसीय खेल कभी ओपनर्स का खेल था। वह गिरे तो खेल लगभग खत्म। अब तेंदुलकर-गांगुली गिरे, या मार्श-बून। यह जरूर था कि इन्हें गिराना आसान न था। लेकिन विश्व-विजेता टीमों में जब बड़े-बड़ों के गिरने का लोग जश्न मना रहे होते, तो च्विंगम चबाते खूँखार विवियन रिचर्ड्स को मैदान में आते देख सोचते कि भला क्यों विकेट जल्दी-जल्दी ले लिए।
इन ‘मिडल-ऑर्डर’ के उस्तादों में जब ऑस्ट्रैलिया के एक खिलाड़ी की चिकित्सकीय जाँच हुई तो पाया गया कि उसकी हृदय-गति कम है, और फेफड़े मजबूत हैं। यानी वह तनाव लेता नहीं, और भाग खूब सकता है। उस खिलाड़ी माइकल बेवन ने अपनी जीवनी में भी लिखा कि तनाव देने की ही चीज होती है, लेने के नहीं। चार गेंद में बारह ही रन तो बनाने हैं। वह चाहते तो पहले तेज गति से भी खेल सकते थे, लेकिन वह कछुआ चाल से धीरे-धीरे रन चुराते हुए इस मंजिल तक पहुँचे और फिर जीत भी गए। बस हर गेंद में एक रन आने की तरकीब हो, एक गेंद छूटी तो दो रन; दो गेंदें छूटी तो एक चौका।
एक समीक्षक ने कहा कि बेवन के दिमाग में कैलकुलेटर है, और हाथ में एक नाजुक चिमटा है। वह अपनी मर्जी से गेंद को उठा कर दो फील्डर के बीच निकालना जानता है। और इसलिए स्टीव वॉ ने उन्हें पायजामे में पिकासो कहा, जबकि स्टीव वॉ स्वयं इस तकनीक के उस्ताद थे। जो ‘96 के बाद के क्रिकेट देख रहे होंगे, उन्होंने बेवन को आउट होते कम ही देखा होगा। बल्कि ‘नॉट आउट’ रहने की वजह से उनका औसत उनके उच्चतम स्कोर से अधिक था।
एक खिलाड़ी जिसने अपने जीवन में गिने-चुने छक्के लगाए, दो सौ से ऊपर मैचों में मात्र छह शतक लगाए, आज भी दुनिया के सर्वश्रेष्ठ फिनिशर्स में क्यों गिना जाता है? कुछ तो बात होगी।
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