एक बात तो मन में आती ही है कि उत्तर के गायक जब तमिलनाडु वगैरा जाते होंगे तो उन्हें क्या खाक बंदिश समझ आती होगी? लेकिन अब्दुल करीम ख़ान तो अक्सर जाते और सब चुप्प होकर सुनते, रस लेते। रोशनआरा बेग़म ने कहा कि मद्रास जैसी महफ़िल फिर कहीं न हुई। सुर की समझ तो दक्खिन में घर-घर में है, और सुर की भाषा नहीं होती।
पं. रवि शंकर ने दक्खिन के रागों को खूब बजाया, इसकी वजह चाहे जो भी रही हो। वह एक बार साक्षात्कार में कहते हैं कि मैंने अपना बंगाली उपनाम इसलिए हटाया कि लोग मुझे भारतीय समझें, बंगाली नहीं। वह ‘पैन-इंडियन’ पहचान चाहते थे, कि वह कहीं जाएँ तो लोग ये न टैग लगाते फिरे कि उत्तर से है या दक्खिन से।
और यही बात अब्दुल करीम ख़ान की भी रही जब वह घूम-घाम के धारवाड़ तक आए तो अपना थोपने की बजाय, अपने तान में दक्खिन के मुरकी, खटका लाए। आप किराना का आलाप सुनिए, तो हल्के लफ्जों में कहूँ, लगेगा कि ‘पड़ोसन’ फिल्म के महमूद गा रहे हैं। दक्खिन के आलाप में ऊँची पिच बसी ही हुई है कि एक वेदना या करुणा निकल आती है। खींच-तान कम, रस अधिक। तो यह सुगम अधिक है। यही वजह रही होगी कि जितने फिल्मी गायक हुए लता जी, आशा जी, मन्ना डे, महेंद्र कपूर सबके सब भिंडीबाजार से सीखे। वहाँ दक्खिन से सीखे उत्तर भारतीय गुरु अमान अली ख़ान हुआ करते। बाकी लोग इमन (यमन) से शुरुआत कराते, वह हंसध्वनि से। दक्खिन के राग से।
भीमसेन जोशी ने तो स्पष्ट ही कह दिया कि मैं किसी उत्तर भारतीय के साथ जुगलबंदी न गाऊँगा। बस बाल मुरलीकृष्ण के साथ गाऊँगा। हालांकि विलायत ख़ान ने जोर दिलवा कर राशिद ख़ान के साथ बहुत बाद में गवाया। लेकिन दक्खिन वाले क्या उत्तर वालों को यूँ ही सिखा देते होंगे? उस वक्त हिन्दी-तमिल न होता होगा? होता है, मगर प्रेम से होता है।
एक बार बड़े ग़ुलाम अली ख़ान ने बालासुब्रहमण्यम जी को राग गावती सिखाया, तो बदले में उन्होंने आंदोलिका सिखा दिया। यही अदला-बदली होती। तभी तो संगीत पैन-इंडियन बनता। तो मैं जब कहता हूँ कि यह ‘क्लासिकल’ शब्द और घराने उखाड़ फेंकिए और एक शब्द कहिए- हिंदुस्तानी संगीत। तो इसमें अब कार्नाटिक कह कर एक फांक और न करिए। वह भी ‘हिंदुस्तानी संगीत’ ही है। सब एकहि है।
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