मैंने अपनी किताब में भी लिखा है कि आईसलैंड में धरती बीचों-बीच दो फांक होती रहती है। जिसकी आभासी तुलना मैंने सीता के जन्म और समाधि से की है। यह दरअसल दो टेक्टॉनिक प्लेट का जुड़ना, अलग होना भी है। मैं जब प्रेत की बात करता हूँ, तो कहता हूँ कि वहाँ लोगों ने उन इलाकों में सड़क और मकान नहीं बनाए, जहाँ प्रेत हैं। प्रकृति बची रही।
समस्या तब आती है, जब विज्ञान और तर्क विश्वास की धज्जियाँ उड़ाते हैं। और तब भी जब विश्वास बलवान होकर विज्ञान और तर्क को धत्ता बताता है।
मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर में बलात्कार पर ईश्वर क्यों चुप हैं? आप कहते हैं, वो हैं ही नहीं? अरे अंधों! वो उस घर में उन्हें दिखे नहीं, तभी तो यह कुकर्म किया। न अंदर बैठों को दिखते हैं, न बाहर बैठों को। तो कहाँ होंगे ईश्वर? पेड़ पर पेड़ काटे जा रहे हो, और कहते हो कि पेड़ पर प्रेत बैठने वाली बात झूठी है? ईश्वर को देखा नहीं, तो प्रेत की चीत्कार भी नहीं सुनी होगी।
गांधी अपने प्रारंभिक लेख ‘फ़ेस्टिवल्स ऑफ़ इंडिया’ में, सावरकर अपने प्रसिद्ध लेख ‘क्ष-किरण’ में, आईंस्टाईन अपने ‘रिलीज़न ऐन्ड साईन्स’ में यह बातें समझा चुके हैं। पर आपके लिए तो गांधी, सावरकर और आईन्सटाईन ही तीन गैंग के हैं, तो क्या कहूँ?
मिथिला की सीता जमीन से निकली बेटी ही थी। कहाँ से? जमीन से? उनके हाथ में किसी जाति या धर्म का झंडा नहीं था। मिथिला का ‘आधा गांव’ आज भी मर्सिया गाता-खेलता है। मिथिला में जात-पात की भिन्नता भी है, और एकता भी।
लिख ‘मिथिला’ रहा हूँ, पर इसे धरती ही समझिए। आईसलैंड भी मिथिला ही है। धरती वहाँ भी फटती है। धरती का ध्येय जुड़ाव है और फांक होना प्रकृति।
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