संगीत में गरीब-फकीरों के लिए जगह नहीं। एक वाद-विवाद में यह बात चल पड़ी। मुद्दा शास्त्रीय संगीत का था जो राज घरानों में ही पला-बढ़ा। राज घराने खत्म हुए, संगीत भी खत्म होने लगा। असगरी बाई भी टीकमगढ़ की शानो-शौकत याद कर भावुक हो उठती हैं। पर मुझे लगता है कि फकीरों की आवाज ही अलग है। और घरानों से जुदा भी कुछ लोग तो जरूर हुए।
कुमार गंधर्व की चर्चा मैं करता रहा हूँ, हालांकि फकीरी उनके पुत्र मुकुल जी ने निभाई और रसातल में चले गए। पर एक फकीर हैं, जो पैदाईशी गरीब-फकीर ही रहे, और वो उनकी गायन शैली में भी नजर आता है।
गर गाते समय चेहरे की भंगिमा, गले का थरथराना, होठों का तेज गति से कंपन देखना हो तो, या तो भीमसेन जोशी जी को देखिए, या देखिए मल्लिकार्जुन मंसूर को। कठिन और लीक से हटकर रागों को गाने की कुव्वत उनमें है। राग विभास हो, गौड़ मल्हार हो, असावरी हो। आज झिंझोटी सुन रहा हूँ।
तकनीकी बात करता हूँ। रागों में अलाप पहले आता है, बंदिश बाद में। पर मंसूर जब गाते हैं, बंदिश के बीच में वापस अलाप में भी आ जाते हैं, और गले को कंपन देकर गमक भी उसी वक्त। यह रीति के विपरीत है। यह कुमार गंधर्व, मंसूर या जयपुर घराने वाले कुछ लोग ही करते हैं।
इतना ही नहीं, नाक से गाना, तालु से गाना। ये नहीं कि बस गले से गा दिया। यह सब अलग-अलग स्केल लाता है, पर यह सब नहीं करते। यह रागों की परंपरा को तोड़ना है, पर मंसूर का स्टाइल है। वो बंधे नहीं, और इसलिए जब भी कभी स्वच्छंद सुर सुनने की इच्छा होती है, मल्लिकार्जुन मंसूर जी को सुन लेता हूँ।
आप अगर संगीत के विद्यार्थी नहीं, मेरी तरह बस श्रोता हैं तो मंसूर जी को गाहे-बगाहे सुनते रहें। विद्यार्थियों के लिए परंपरा तोड़ने से पहले निभाना मेरे ख्याल से जरूरी है।
Wonderful information about of classical music.
I like most pt. Bheemsen.