उन दिनों नॉर्वे नया-नया आया था। किसी मरीज का एक काग़ज चाहिए था, तो एक पीले पुर्जे पर उसका नाम और उसका आई.डी. नंबर लिख कर सेक्रेट्री साहिबा को पकड़ा दिया। उन्होनें काग़ज ढूँढ दिए, और पुर्जा कचड़े के डब्बे में। जब सप्ताहांत पर कचड़ा उठाने लोग आए तो वो पुर्जा मिला होगा। वह पीला काग़ज का टुकड़ा बेशकीमती निकला। मुझे नोटिस मिला कि आपने किसी की ‘आईडेंटीटी’ लीक कर दी। वो तो धन्य वो कचड़े वाला जिसने पुर्जा लौटा दिया। अन्यथा जेल हो जाती।
अगली बार मैनें सोचा कि ई-मेल से ही भेजूँगा, पुर्जे पर लिख कर नहीं। फिर से नोटिस आ गया कि ई-मेल पर भी आई.डी. नहीं लिख सकते। वो भी सुरक्षित नहीं। वहाँ भी जेल हो जाएगी। आखिर गुप्त तरीका बताया गया, जो यहाँ नहीं बताऊँगा।
डॉक्टरों के हाथ में एक कुंजी होती है, जिसमें तमाम आई.डी. छुपी होती है। वो कुंजी संभालना जरूरी है। एक दफे और नोटिस आया, जब अपना कम्प्यूटर ताला खुला छोड़ निकल आया था। फिर आईडेंटीटी चोरी का डर।
एक दिन मजाक में एक मनेज़र साहब ने पूछा, “भारत में इस चोरी का भय नहीं?”
मैनें कहा, “पता नहीं। कभी ऐसा सुना नहीं।”
“तो फिर किस चोरी का महत्व है?”
“भारत तो बड़ा देश है। मेरे प्रांत में गर ‘माछ की झोरी’ (मछली की झोली) चोरी हो जाए, तो रूदन-क्रंदन संभव है।”
“फिर तो तुम हमारी तरह वाईकिंग के वंशज लगते हो। वो भी मछली के चक्कर में लड़ाई कर लेते थे।” और वो हंसने लगे।
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हालिया दो किताबें पढ़ी। एक ‘हाफ़-अ-लाइफ़’ और दूसरी ‘मैज़िक सीड्स’। दोनों एक ही लेखक* कीहैं, जिसमें एकभारतीय विली रामचंद्रन पूरा जीवन अपनी पहचान (आईडेंटीटी) तलाशते रहते हैं।
भारत के विदेश मंत्रालय ने तीस हज़ार रूपए शुल्क पर एक स्कीम बनाई है, जिससे किसी भी भूले-बिछड़े प्रवासी की जड़ ढूँढ दी जाएगी। गर वो एक बार बनारस घाट घूम आएँ, वहाँ के पंडे ही पूरी कुंडली बांच दें। विदेश मंत्रालय क्या पहचान बताएगा? मैं अपनी आईडेंटीटी तो तभी सिमरिया की गंगा में बहा आया, जब गाँव से निकला। अब तो वो अस्थाई है। बदलती रहती है। कोई क्या चुराएगा?
*पोस्ट में किस लेखक की चर्चा है?
बहुत अच्छी रचना