Originally written by Mohandas K. Gandhi. Translated by Praveen Jha ‘Vamagandhi’
(सात फरवरी, १८९१। बाईस वर्ष के युवा की डायरी)
भारत में विभिन्न जातियों और पंथों के ढाई करोड़ लोग बसते हैं। अंग्रेजों में, खासकर उनमें जो कभी भारत नहीं गए, एक आम मान्यता है कि भारतीय पैदाईशी शाकाहारी होते हैं। पर इसका बस एक अंश सत्य है। भारतीयों के तीन मुख्य विभाजन हैं– हिंदू, मुस्लिम, और पारसी।
हिंदूओं के चार वर्ण हैं– ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। सैद्धांतिक रूप से बस ब्राह्मण और वैश्य शुद्ध शाकाहारी हैं। किंतु प्रायोगिक रूप से सभी हिंदू लगभग शाकाहारी हैं। कुछ स्वेच्छा से, कुछ अनिवार्य रूप से। कुछ माँस खाना भी चाहते हैं, तो वो इतने गरीब हैं कि खा नहीं सकते। भारत के हजारों लोग एक पैसा प्रति दिन पर गुजारा करते हैं। वो रोटी और नमक पर गुजारा करता है। नमक पर भी टैक्स बहुत है। और भारत जैसे गरीब देश में माँस की कीमत लगभग दस पैसे है।
स्वाभाविक प्रश्न ये है कि भारत का शाकाहार है क्या? भारतीय शाकाहार का मतलब अंडा भी नहीं खा सकते। भारतीय मानते हैं कि अंडा खाना भी किसी की जान लेने के बराबर है, क्योंकि अंडे को अगर यूँ ही छोड़ दिया जाए तो उससे चूजा निकल आएगा। पर यहाँ के चरमपंथी शाकाहारियों के विपरीत भारतीय दूध और मक्खन खाते हैं। खाते ही नहीं, बल्कि उसे इतना पवित्र मानते हैं कि हर पूर्णिमा के फलाहार में उच्च कोटि के हिंदू दूध–मक्खन ही खाते हैं। क्योंकि वह मानते हैं कि दूध के कारण वह गाय की जान नहीं ले रहे। इतना ही नहीं, दूध दूहना एक गाय के प्रति कोमल व्यवहार है, गोहत्या की तरह क्रूर नहीं। तभी गो–पालन भारतीय कविताओं और कला का हिस्सा बन चुका है। यह भी स्पष्ट कर दूँ कि गाय हिंदूओं के लिए पूज्य है, और एक आंदोलन की शुरूआत हो चुकी है जो गायों की हत्या या हत्या के लिए गायों के निर्यात का विरोध करती है।
भारतीय शाकाहार इस बात पर निर्भर करता है कि आप कहाँ रहते हैं। बंगाल में लोग मुख्यत: चावल खाते हैं, और बॉम्बे प्रेसिडेंसी में गेहूँ।
भारतीय वयस्क, खासकर उच्च जाति के, दिन मे दो बार भोजन करते हैं और बीच में आवश्यकतानुसार जल पीते हैं। पहला भोजन सुबह 10 बजे अंग्रेजी ‘डिनर‘ के समकक्ष, और दूसरा रात 8 बजे अंग्रेजी ‘सपर‘ के। हालांकि यह भोजन अंग्रेजी भोजन से अधिक गरिष्ठ हैं। आप गौर करेंगें कि नाश्ता और मध्यान्ह भोजन नहीं है, जबकि भारतीय सुबह चार–पाँच बजे ही जग जाते हैं। यह आपको आश्चर्य होगा कि कैसे भारतीय नौ घंटे भूखे रह लेते हैं। इसके दो कारण हैं।
पहला कारण है कि धर्म या कर्म की जरूरतों के हिसाब से दो बार भोजन से अधिक संभव नहीं हो पाता। दूसरा कारण है कि भारत मूलत: एक गरम देश है। ईंगलैंड में भी गर्मियों में लोग कम खाना खाते हैं। भारत अंग्रेजों की तरह व्यंजन अलग–अलग नहीं खाते, सब कुछ मिला कर खाते हैं। और हर भोजन बनाने में भी वक्त लेते हैं। उबला भोजन नहीं, बल्कि नमक, तेल, सरसों, मिर्च, हल्दी और इतने मसाले कि उनके अंग्रेजी नाम भी मिलने कठिन होंगें।
पहला भोजन रोटी, दाल, और दो–तीन सब्जियों से बनता है। इसके बाद अक्सर लोग खीर, दूध या दही खाते हैं। दूसरा भोजन भी ऐसा ही है पर सब्जियों की संख्या और मात्रा कम होती है। भोजनोपरांत दूध की मात्रा अधिक होती है। पाठक यह ध्यान रखें कि यह भोजन प्रणाली कोई नियम नहीं, और पूरे भारत के लिए भी मान्य नहीं। जैसे मिठाई अमीर लोग हफ्ते में एक बार खाते ही हैं, गरीब नहीं खाते। बंगाल में रोटी से अधिक भात खाया जाता है। मजदूर वर्ग का भोजन भिन्न ही है। अब इतने अलग–अलग तरह से लिखूँ तो भारत के व्यंजन बताने में मेरा जीवन कम है।
मक्खन का प्रयोग भोजन बनाने में इंग्लैंड या यूरोप से भिन्न तरीके से होता है। और चिकित्सकीय रूप से देखें तो भारत जैसे गरम देश में मक्खन कुछ ज्यादा खा भी लिया तो स्वास्थ्य पर फर्क नहीं पड़ता।
पाठकों ने गौर किया होगा कि फल का जिक्र तो किया ही नहीं, जो इंग्लैंड में टोकरी भर–भर खाते हैं। इसकी एक वजह है कि भारतीयों के लिए फल की महत्ता अलग है। वो खरीद कर फल कम खाते हैं, गरीब तो बिल्कुल नहीं। बड़े शहरों में अच्छे फल बाजार में मिल जाते हैं, छोटे शहरों में नहीं। भारत में हालांकि ऐसे फल भी मिलते हैं जो इंग्लैंड में नहीं मिलेंगें, पर भारत में उनका महत्व भोजन–रूप में नहीं। अधिकतर भारतीयों के लिए फल बस फल हैं, उनसे पेट नहीं भरता।
मैनें पिछले लेख में रोटी की बात की थी। रोटी भारत में अक्सर गेंहूँ की बनती है। गेँहू को पहले हाथ–चक्की में पीसा जाता है। छन्नी से छान कर आटा अलग किया जाता है। पर गरीब बिना छाने भी मोटा आटा खाते हैं। हालांकि दोनों ही आटा अंग्रेजों के ब्रेड वाले आटा से बेहतर होते हैं। इसमें कुछ मक्खन मिलाकर और पानी डाल कर गूदा जाता है। अब इस गूदे आटे के गोले बनाए जाते हैं, लगभग छोटे संतरे के आकार के। एक लकड़ी के गोलाकार डंडे से इसे लगभग छह इंच के आकार में गोल बेला जाता है। एक तवे पर हर टुकड़े को पकाया जाता है। एक रोटी को सेंकने में पाँच–सात मिनट तक लग सकते हैं। और फिर बनती है लजीज रोटी जो मक्खन लगा कर खाई जाती है।
आप अंग्रेजों को जितना आनंद माँस खाकर आता होगा, उससे कहीं अधिक हमें यह रोटी खाकर आता है।
अब आप पूछेंगें कि अंग्रेजों के आने से हमारा खान–पान बदला या नहीं? इसका जवाब ‘हाँ‘ भी है और ‘ना‘ भी। आम जनता के खान–पान में लगभग कोई बदलाव नहीं। बाकी जिसने कुछ अंग्रेजी सीखी, उसने कुछ खान–पान अपनाया। पर यह अच्छा हुआ या बुरा, पाठक बेहतर समझते हैं।
खासकर इन नये भारतीयों ने चाय–नाश्ता करना शुरू किया है। चाय और कॉफी ब्रिटिश राज के बाद अचानक से प्रचलन में आ गया। चाय–कॉफी से कोई फायदा तो है नहीं, बस खर्च बढ़ गए। पर सबसे विनाशक पेय जो अंग्रेज लाये, वो है शराब। यह मानव–समाज का दुश्मन और हमारी संस्कृति के लिए अभिशाप बन कर उभरेगा। अब पाठक इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि धार्मिक मनाही के बावजूद यह भारत में चहुदिशा में पसर चुका है। मुस्लिम के लिए शराब छूना भी पाप है, और हिंदुओं के लिए शराब के किसी भी रूप की मनाही है। पर सरकार इसे बंद करने की बजाय बढ़ावा दे रही है।
और इसका सबसे अधिक नुकसान हमेशा की तरह, गरीबों की ही हो रहा है। वो जो भी थोड़ा–मोड़ा कमाते हैं, शराब में उड़ाते हैं। वह अपने बाल–बच्चों और परिवार को त्याग कर शराब के नशे में धुत्त मर जाते हैं। आपकी तरफ से बस एक मि. कैनल ने शराब के खिलाफ जंग छेड़ी है, पर वो अकेले क्या कर लेंगें? खासकर जब ब्रिटिश सरकार इस विषय पर निकम्मी और संवेदनहीन हो।
अब तक पढ़ कर आपको लग गया होगा कि भारतीय शाकाहार की अालोचना के आप अंग्रेजों के सभी तर्क बेबुनियाद हैं।
पहला आरोप आप लगाते हैं कि भारतीय शाकाहार मनुष्य को दुर्बल और कमजोर बनाता है।
यह सिद्ध हो चुका है कि भारतीय शाकाहारी औसतन भारतीय माँसाहारियों से और आप अंग्रेजों की अपेक्षा भी बराबर ताकतवर होते हैं। और गर कोई कमजोर है भी तो इसकी वजह निरामिष होना नहीं।
यह बात और है कि भारतीय स्वाभाविक रूप से बल–प्रयोग करने वाले व्यक्ति नहीं हैं, और वही आपको कमजोरी नजर आती है। एक प्रथा जो हमारी कमजोरी की जिम्मेदार है, वो है बाल–विवाह।
अब नौ वर्ष के बच्चे पर वैवाहिक जिम्मेदारी आ जाए तो वह क्या शरीर का ध्यान रखेगा? भारत में तो कई संस्कृतियों में जन्म के साथ ही विवाह तय हो जाता है। यह एक पारिवारिक वचन होता है। हालांकि पति–पत्नी साथ रहना दस वर्ष के बाद ही प्रारंभ करते हैं। मैनें बारह वर्ष की कन्या को सोलह वर्ष के पति से गर्भधारण करते भी देखा है। आप जिसे पौरूष और शक्ति कहते हैं, यह तो हमारे यहाँ बच्चों का खेल है। अब बताएँ कि कौन कमजोर है?
अब सोचिए बाल विवाह से उत्पन्न बच्चे कैसे होंगें? अब ग्यारह वर्ष के किशोर को जबरदस्ती एक पत्नी का बोझ सर पर लेना पड़े, तो क्या होगा? वो निश्चित अभी स्कूल जा रहा होगा। स्कूल में पढ़ाई के बाद उसे अपनी बालिका पत्नी की भी देख–भाल करनी है। हालांकि उसे यह अकेले नहीं करना, वह एक बड़े परिवार का हिस्सा है। लेकिन फिर भी पाँच–छह वर्ष बाद बच्चे होंगें, तो उस पर जिम्मेदारी तो आएगी ही। वह पूरे जीवन पिता पर आश्रित तो नहीं रह सकता। अब इस चिंता का असर तो स्वास्थ्य पर पड़ेगा ही। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वो मांस खाते तो बलवान होते। गर ऐसा होता तो क्षत्रिय राजकुमार मांस खाकर भी कमजोर क्यों हैं? जाहिर है कि वजह उनकी अय्याशी है, मांसाहार या शाकाहार कमजोर नहीं बनाता।
अब भारत के अहीर और गड़ेरिये समुदाय को ही ले लें। वह इतने हट्टे–कट्टे और तगड़े लोग हैं कि यूरोपी लोग उनके सामने न टिकें। वो अपने बाजूओं से बाघ को पकड़ लेते हैं, ऐसे किस्से सुने हैं। वह इसलिए कि वो एक प्राकृतिक और ग्रामीण परिवेश में रहते हैं। लोग कहते हैं कि वह घास–फूस खाकर शरीर तो बना लेते हैं पर उनकी बुद्धि कमजोर है। लेकिन इसमें भी वजह मांस नहीं है। वह मांस खाते तो बुद्धि विकसित होती, ऐसा नहीं है। आप बल और बुद्धि को मिलाएँ तो एक शाकाहारी अहीर और मांसाहारी अहीर की तुलना करें, यह नहीं कि कि बल के लिए एक मानक और बुद्धि के लिए दूसरा।
आप जो मर्जी हो, वह खा सकें, यह संभव नहीं है। आप जो खाते हैं, वही आपके शारीरिक और मानसिक विकास में सहयोगी है। हमारे शरीर से जो ऊर्जा खर्च होती है, वही बुद्धि के विकास में भी लगती है। और यह किसने सिद्ध कर दिया कि शाकाहार का विकल्प बस मांस खाना है?
अब क्षत्रियों को ही लें, जो मांस खाते हैं। क्या हर क्षत्रिय तलवारबाज़ है? अगर सभी क्षत्रियों और राजाओं की बात करें, तो मिला–जुला कर यह कमजोर लोग ही हैं। हर क्षत्रिय पृथ्वीराज या भीम नहीं। यह सत्य है कि वह कभी सबसे शक्तिशाली लोग थे, पर अब उनकी शक्ति अय्याशी की वजह से घटती जा रही है। असल वीर लोग अब ‘नॉर्थ–वेस्ट प्रॉविंस‘ के भाया (भैया) लोग हैं। वो गेहूँ, दाल, और चने खाने वाले शांतिप्रिय लोग हैं। वह आज देश की फौज में हैं।
इसलिए यह बात सही नहीं कि शाकाहारी के पास शक्ति नहीं। आप हमारे हिंदू धर्म के आहार पर जो आरोप लगाते हैं, वो सरासर गलत है।
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पिछले लेख में अापने पढ़ा कि कैसे अहीर (भारवाड) शाकाहारी खाकर भी कितने शक्तिशाली होते हैं। पर यह बात पूरे भारत के अहीरों पर लागू नहीं होती। जैसे इंग्लैंड की हर बात स्कॉटलैंड पर लागू नहीं होती। भारत तो खैर बहुत ही विविध है। पर देखते हैं कि एक अहीर की जीवनचर्या कैसी है?
अहीर सुबह पाँच बजे उठ जाता है। पहला काम वह भगवान की प्रार्थना करता है। फिर मुँह–हाथ धोना। इसमें आपको भारत का दंतमंजन भी समझा दूँ। हम ब्रश भी पेड़ की हरी टहनी से ही बनाते हैं, हर रोज ताजी। एक सिरे से दांत से चबाकर हम उसे कोमल रेशेदार बना देते हैं। और तैयार हो जाता है हमारा नया–नवेला ब्रश। दांत पूरी तरह चमका कर उसी टहनी को आधा कर हम जीभिया करते हैं। यही हर भारतीय के स्वस्थ दांतों का राज है। आपके मंजन और पेस्ट से बेहतर। और हम फटाफट नहीं करते। आधे घंटे तक दातून करते रहते हैं। दांत को समय देते हैं।
अहीर सुबह बाजरे की रोटी के साथ कुछ मक्खन या बिना मक्खन के भी नाश्ता करते है। सुबह आठ बजे वह अपने मवेशियों को देखने निकल जाता है, जहाँ घर से दो–तीन मील दूर पहाड़ी रस्तों से निकल कर जाना होता है। इसलिए वह सुबह–सुबह चल भी लेता है, और स्वच्छ हवा भी पाता है। जितनी देर पशु चरते हैं, वो गीत गाता है, और मित्रों से खूब बतियाता है। बारह बजे वह भोजन करता है, जो साथ बांध कर लाया होता है। यह रोटी, दाल, सब्जी, कुछ अचार और एक गिलास दूध होता है।
तकरीबन ढाई बजे यह किसी पेड़ की छाँव में आधे घंटे एक छोटी नींद लेते हैं। यह नींद इन्हें कड़ी धूप से कमछ राहत देती है। छह बजे यह घर लौट आते हैं और सात बजे भोजन। चावल या अधिकतर रोटी, सब्जी और दाल। उसके बाद आराम से खाट पर बैठ कर परिवार वालों के साथ गप्प मारना। और दस बजे सोना। अहीर पुरूष बाहर खुली हवा में सोते हैं। पर ठंड या बरसात में अपने झोपड़ी के भीतर भी।
कब मैं झोपड़ी रहा हूँ, पर यह न समझें कि यह आपके घरों से कमजोर है। संभव है खिड़कियाँ कम हो या न हो, पर हवा की आवा–जाही अच्छी होती है। पर हाँ! इन झोपड़ों के विकास की संभावना तो है ही।
अहीर की जीवन–शैली कई मामलों में आदर्श है। नियमित, अनुशासित, खुली हवा में, और प्राकृतिक व्यायाम, जो उन्हें शक्ति देती है। अगले लेख में कहना चाहूँगा इस जीवन–शैली की समस्या।
एक अहीर की दिनचर्या में एक ही दोष है, वो है स्नान की कुछ कमी। एक गरम प्रदेश में स्नान अत्यावश्यक है। ब्राह्मण दिन में अक्सर दो बार स्नान करते हैं, वैश्य एक बार, कई अहीर पूर्ण रूपेण स्नान हफ्ते में एक ही बार ही करते हैं। पर मैं यह पहले समझा दूँ कि भारतीय नहाते कैसे हैं?
अमूमन भारतीय अपने गांव के किसी नदी या तालाब में नहाते हैं। अगर नदी आस–पास नहीं, या वह डूबने से डरते हों, या आलसी हों, तो वह घर में ही नहा लेते हैं। पर अक्सर वो आप अंग्रेजों की तरह छलांग नहीं मारते, वो पानी में उतरते हैं। या लोटा लेकर नहाते हैं। यह इसलिए भी कि भारतीय मानते हैं कि अगर पानी में छलांग मारो, तो जल पूरी तरह अशुद्ध कर देगा। इसलिए लोटा से अपने मतलब का जल निकालना और किनारे नहाना श्रेयस्कर है। इसी लिए वो बेसिन में भी हाथ नहीं धोते। लोटा में कुछ पानी लेकर किनारे में धोते हैं।
पर स्नान न करने से क्या होता है? औसतन यह देखा है कि ब्राह्मणों के मन में बैठ गया है कि स्नान आवश्यक है और इसके बिना वह अस्वस्थ हो जाएँगें।
पर यह सब आदत की बात है। भारत का मेहतर समुदाय पूरे दिन मल में ही कार्यरत है, और स्वस्थ है। वहीं किसी और को उतार दो, एक दिन में अस्वस्थ हो जाए। आप अंग्रेज ही एक दिन ईस्ट इंडिया के मजदूरों की तरह जी लें, आप कुछ ही दिन में मरणासन्न हो जाएँगें।
अब आपको एक दंतकथा सुनाता हूँ। एक राजा को एक महिला से प्रेम हुआ जो अपूर्व सुंदरी थी और दातून बेचती थी। सुंदरी होने के नाते उन्हें राजमहल में जगह दी गयी। सारे सुख–साधन दिये गए। स्वादिष्ट भोजन, सुंदर कपड़े, सब कुछ। पर एक अजीब बात हुई। सुंदरी का स्वास्थ्य दिनानुदिन खराब होता गया। कई वैद्य आए, तमाम औषधियाँ दी गयी, पर कोई सुधार नहीं। तभी एक चतुर वैद्य को रोग का पता लग गया। उसने कहा कि उन पर बुरी शक्तियों का साया है। उनके घर में सूखी रोटियाँ अलग–अलग कोनों में रखवायी जाए, और कुछ फल। कुछ दिनों में उनमें सुधार आ गया। एक गरीब सुंदरी को तमाम स्वादिष्ट व्यंजन नहीं, सूखी रोटियाँ ही पसंद थी।
तो यह आदतों की बात है। एक अहीर को स्नान की कमी उसके ग्रामीण जीवन–शैली की वजह से न खलती है, न आपकी तरह नुकसान पहुँचा पाती है।
अापने पिछले लेखों में पढ़ा कि शाकाहारी अहीर शक्तिशाली होते हैं। लंबी उम्र जीते हैं। एक आदर्श जीवन–शैली की वजह से। मैं एक भारवाड (अहीर) महिला को जानता हूँ जो १८८८ ई. में सौ वर्ष से ऊपर थीं। उनकी दृष्टि और स्मरण–शक्ति बहुत अच्छी है। उन्हें बचपन की बातें भी याद हैं। उन्हें बस एक पतली लाठी का सहारा लेना होता है। वो आज भी जीवित ही होंगीं। इतना ही नहीं, आपको कोई गोल–मटोल अहीर नहीं दिखेगा, सब तंदरूस्त हैं। बाघ की शक्ति लेकिन एक भेड़ की भीरूता। एक बुलंद अावाज लेकिन डरावनी नहीं। कुल मिलाकर अहीर एक आदर्श शाकाहारी समुदाय है जिनमें आप मांसाहारियों के बराबर शक्ति है।