“माउंटबैटन सा’ब! जनाबे-आली दरअसल मुझे भूपाली भटूरे बहुत पसंद हैं।”
“क्या बात कर रहे हो जिन्ना? अब भोपाल कैसे मिलेगा?”
“कैसे भी कर के दिलवा दो, आप तो माशा-अल्लाह बड़े शातिर हो।”
“ठीक है। आई विल डिस्कस विद नेहरू।”
“सच्ची?”
“मुच्ची।”
……
“अरे अब जिन्ना को भटूरे पसंद हैं, तो मुझे भी लाहौरी बिरयानी पसंद है। ये क्या लॉजिक है?”
“भाई तुम तो पंडित हो।”
“कश्मीरी न?”
“वहाँ चलता है क्या?”
“दैट्स पर्सनल क्वेश्चन मौंटी!”
“ओ के! तुम लाहौर ले लो, वो भोपाल ले लेगा।”
“गाँधीजी कभी नहीं मानेंगें। फास्ट पे चले जाएँगें।”
“क्यूँ? उन्हें भी भोपाली भटूरे पसंद हैं?”
“अरे, क्या मजाक करते हो? गाँधी जी और भटूरे?”
“देन, व्हाट्स द प्रोब्लेम?”
“पटेल को भटूरे पसंद हैं।”
“वो दिल्ली में बनवा लेगा।”
“जिन्ना बनवा ले लाहौर में भटूरे।”
“दैट्स अ गुड प्वाइंट”
…..
“न! मैं तो भूपाली भटूरे ही खाऊँगा।”
“मैं नहीं देता भोपाल! जो करना है कर ले।”
“देख नेहरू! एक भोपाल से तेरा क्या जाएगा?”
“इट्स द’ हार्ट ऑफ इंडिया! तू दे देगा लाहौर?”
“लाहौर न दूँगा, पेशावर ले ले।”
“मुझे नहीं खानी चपली कबाब! तू लखनऊ क्यूँ नही लेता?”
“उनकी ऊर्दू तो मुझसे भी नहीं बोली जाती। ऊपर से टुंडे का कबाब, मुँह में डालो, हवा हो जाए। बिन चबाए मजा नहीं आता गुरू।”
“गाँधी जी से पूछता हूँ। न तेरी, न मेरी। जो बोलेंगें, अपन वहीं करेंगें।”
“गॉड, गिव मी पेशन्स! चल ठीक है।”
…..
“पाकिस्तान मेरी लाश पर ही बनाना! मैं फास्ट पे जा रहा हूँ।”
“गाँधीजी, वो भोपाल माँग रहा है?”
“जिन्ना! तुम वजीरे-आजम बनो! भोपाल भी लो, लाहौर भी।”
“नहीं, पाकिस्तान तो हमका चाहबे करी।”
“ये तुम्हारी ऊर्दू को क्या हो गया?”
“सॉरी! जबान फिसल गई। कल राजिंदर के साथ ढाबे में बैठ गया था।”
“पाकिस्तान में कोई राजिंदर नहीं मिलेगा।”
“दैट्स ट्रू! क्या करें भाई नेहरू फिर?”
“पटेल! व्हाट डू यू थिंक?”
“भोपाल तो मैं नहीं दूँगा। भटूरे जिन्ना से कहीं ज्यादा मैनें खाए हैं?”
“तो टॉस कर लें?”
“टॉस मेरी लाश पर होगा। मैं चला फास्ट पे। हे राम!”
“इधर भटूरे-बिरयानी की बात हो रही है। आप फास्ट कैसे कर लेते हैं?”
“भई! पचास साल की प्रैक्टिस है।”
“लेट्स गो टू मॉंटी! गाँधी जी तो चले फास्ट पे।”
……
“जिन्ना! भोपाल से हलवाई ले जाओ, और बात रफा-दफा करो।”
“बट, दैट वोंट भी भूपाली भटूरे।”
“स्वाद तो वही रहेगा।”
“और नाम का क्या? लाहौरी भटूरे! छी!”
“ये गजब ढीठई है।”
“अब है तो है। आई वांट भोपाल!”
“भोपाल को फिर अलग कर देते हैं। न तेरा, न मेरा।”
“पर तुम लोग कैप्चर कर लोगे?”
“न न! अलग राष्ट्र बनेगा।”
“और भटूरे?”
“दोनों खाएँगें।”
तब से आजतक भूपाली कन्फ्यूज्ड है कि भटूरे इधर खिलाए कि उधर खिलाये।
गैस होती है भटूरे खाने से।
kya khub vyang kiya hai janab e aali….kash log apne swad k peeche itne na akdu hue hote to aj desh ki azadi ka maza kuch aur hi hota
Zabardast! Bahot hasaaya. Bas Vamagandhi ji, dhyan rakhiyega, kahin aapke upar koi rashtrabhakt sedition ka case na thok de, Jai ho!
चूँकि मसला काश्मीरियत और दोस्ती के बीच फंसी कभी न ख़त्म होने वाली जिरह का है, इसलिए “नो कमेन्ट्स”। हालाँकि, इस संवेदनशील मुद्दे को अपने लेखन कौशल के माध्यम से दर्शाने वाला कोई सूरमा भोपाली ही हो सकता है।
Superb. What satire. And even squeezed in Bhopal Gas. Enjoyed it thoroughly. Now hungry 🙂