जब से यूरोप आया, कचड़े छाँटने ने नाक में दम कर रखा है. कागज अलग, प्लास्टिक अलग, धातु अलग, खाद्य कचड़ा अलग, शीशा अलग. मतलब एक चिकेन तंदूरी और कुछ बीयर के कैन निपटाने के बाद उस कचड़े को छाँटने में नशा उतर जाए. कैन धातु है, उसका प्लास्टिक कवर, चिकेन की हड्डियाँ, सामने बिछे टिशू पेपर, और अभी-अभी फूटा शीशे का गिलास. सब अलग-अलग रास्ते चुनेंगें. ये कचड़ों का जातिवाद नहीं तो और क्या है?
जब प्लास्टिक के बदले पेपर के झोले वाली क्रांति आई, कितनी सब्जियाँ रास्ते की भेंट चढ़ गई. अब पेपर क्या उठायेगा मुग्दलनुमा लौकीयों, नुकीली भिंडी और मूलियों का भार? वो तो पोलीथीन का लचीलापन ही संभाल पाए. जूट के झोले खरीदे, पर उसे उठाने में बड़ी शर्मिंदगी होती. गेहूआँ रंग और रेशों से झांकती सब्जियाँ. इज्जत का फलूदा.
तर्क ये है कि आप कागज ‘रिसाइकल’ कर सकते हैं, प्लास्टिक नहीं. बिदेशों में तो शौच भी कागज से ही करते हैं. नाक पोछते हैं. फर्श पोछते हैं. सोचिये ‘रिसाइकल’ होकर आया और आप जिस अखबार को पढ़ रहे हों, उससे कोई शौच कर चुका हो. राम-राम.
और रिसाइकल करोगे भी कितना? आखिर तो पेड़ काटने ही होंगे, कागज के लिये. बहुगुणा जी होते तो चार चमेट मारते. ‘चिपको आंदोलन’ याद है न? पेड़ से चिपक जाते. मतलब न प्लास्टिक, न कागज. पर्यावरण-संरक्षण का मतलब है, सीधा मूली खेत से उखाड़ो और खरगोश की तरह वहीँ खा लो.
ऐसा नहीं कि पर्यावरण वालों से बैर है. बाकी समाज-सेवी क्या कम हैं?
जब से केरल में साक्षरता बढ़ी, पूरा केरल पलायन कर गया. अब हर कोई पढ़-लिख गया तो वहाँ प्रतियोगिता ही इतनी हो गयी. कोई खाड़ी देश लंक लेकर भागा, तो कोई देश भर के हस्पतालों में सेट हो गया. जितनी साक्षरता है, उतने में तो नौकरी के लाले हैं. सब पढ़ गए तो भगवान ही मालिक. मेहनत करने वालों, पढ़ना-लिखना मत सीखो. तुम पढ़ गये, तो मेहनत कौन करेगा?
मेरे कुछ महिला-मित्र हैं नारी-सशक्तिकरण का झंडा लेकर. एक तो नारी जन्मजात शक्ति है, और ताकत दी तो चंड-मुंड-महिषासुर भाँति मारे जाओगे. खाने को खाना न होगा. पीने को पानी न होगा. कब तक उबले अंडों और ब्रेड पर गुजारा करोगे? कपड़ों से गंध आएगी, बर्तनों से बू. सारी बुद्धि छू.
मेरे बच्चों ने अंग्रेजी का एक गाना दिल से लगा रखा है. “वी डॉंट नीड नो एजुकेशन”. जब पढ़ने को कहो, गाने लगते हैं और पैर से ताल भी देते हैं. बाल-सशक्तिकरण में तो नोबेल मिल रहे हैं आजकल. बच्चा आपके सामने वो कश्मीर से लाया झूमर गेंद मार कर फोड़ दे. शीशे पूरे घर बिखर जाए. आपको कुछ नहीं कहना. बस मुस्कुराना है. ना ना! बिल्कुल पुराने दिन याद मत करना जब जरा पानी गिराने पर झट से एक चपेत पड़ती थी.
अजी क्यों धर्म और जातिवाद मिटाने पर लगे हो? पासपोर्ट में ‘उपनाम’ क्या लिखोगे? उपनाम तो छोड़ो, नाम क्या लोगे? अमर तो हिंदू हो गया, आमिर तो मुस्लिम. पूरा नोमेन्क्लेचर ही बदलना होगा. जो जैसा है ठीक है. और दलित-आरक्षण तो है ही न? बोलो नाम चाहिये या नौकरी?
मिला जुला के धरती माँ को बचाने में समय क्यों व्यर्थ करें? माँ की गोद में बच्चे सू-सू पॉटी करते हैं. खुद ही पोंछते हैं क्या? मचाओ जितना गंध मचाना है. माँ सब संभाल लेगी.
एक बार फिर रंग बिखेर दिया आपने तो ।
व्यंग्य के बाण क्या कसे हैं, हालांकि मैं पूरे स्तंभ को एक भरपूर रंग में नहीं रंग पाया । पर हमेशा की तरह मजा आया ।
तभी तो नाम है ‘उल्टी गंगा’. सोचा कुछ निगेटिव लिखते हैं, उल्टी गंगा बहाते हैं. धन्यवाद.
हा हा हा ।
अच्छा वैसे आप लिखते किस पर हैं? मुझे तो हिन्दी में टाईप करने में बहुत समय लगता है। आप तो धांसूं गति वाले लगते हैं ।
फिलहाल आई. फोन पर. भाषा आप जोड़ सकते हैं. मेरे में तीन भाषा की कीबोर्ड सेटिंग है- english, हिंदी, और नॉर्स्क. 🙂
भले गंगा उलटी बहे, लेकिन मैली ना होवे, ध्यान रहे। राज कपूर जी आज ज़िंदा होते तो पार्ट-2 बना दिए होते, बॉय गॉड की क़सम। वैसे भी काफ़ी साफ़-सफ़ाई चल रही है पिछले 2 सालों से। अगर इसी गति से कार्य चलता रहा तो मुमकिन है कि गंगा मइय्या एक बारी और शंकरजी की जटाओं में विलुप्त जाएँ, और फिर से हजार बरस का तप। तुम्हारी लिखी इस ज्ञान-गंगोत्री में डुबकी लगाकर आनंद आया। ऐसे ही खूब लिखते रहो। God bless!
Good comedy n satire on present time.