मेडिकल साइंस की माने तो बच्चे को तीन वर्ष की उम्र में ये ज्ञात हो जाता है कि वो खुद लड़का है या लड़की. चौथे वर्ष से ही लिंग विभाजन. अक्सर बच्चों के भी लिंगानुसार अलग गैंग बन जाते हैं.
बिदेशों में पल रहे भारतीय या कह लें अफ्रीकी बच्चे अपना रंग भी समझने लगते हैं. गोरे, भूरे, काले सब अलग गुट बनाते हैं.
प्राथमिक तक जाते इतना समझ में आ जाता है कि खान, हुसैन, अहमद मुसलमान नाम है. त्रिपाठी, वर्मा, दूबे हिंदु. जॉन ईसाई. ये जबकि वो वक्त होता है कि कोई टोपी या कोई जनेऊ नहीं. फिर भी फर्क करने की शुरूआत हो जाती है.
माध्यमिक स्कूल तक आप जातियों को थोड़ा-थोड़ा समझने लगते हैं. कुछ छोटे-मोटे जातिगत चुटकुले, कुछ गुटबाजी. या बस ये कह देना कि मैं कोई फर्क नहीं समझता. मैं ब्राह्मण हो कर भी दलितों के साथ एकहि थाली में खाता हूँ. फर्क तो इसी लफ्ज में आ गया जो भले ही अच्छे मन से कही गयी हो.
कॉलेज तक बिहारियों के अलग तो पंजाबियों के अलग गुट बनते हैं. कुछ चीजें सब मिलकर भी करते हैं, पर कुछ अलग-अलग भी. मिलजुल कर करना कोई हल है भी नहीं. यूँ तो समुद्र-मंथन भी देवों और असुरों ने मिल कर करा.
परिवार और बच्चों के बाद दायरा और सिकुड़ता है. भाई-भाई और बहनों से भी मतभेद शुरू.
इंसान पैदायशी गुटबाज है. बस इसी ज्ञान को भुना रहे हैं सियासत वाले. अरे लाल बुझक्कड़ों, ये ज्ञान तो तीन साल की उम्र से लिये घूम रहे हैं. हमें पता है हमारी समस्या क्या है? जो भी है, जैसी भी है.
(courtesy: http://www.facebook.com/khilandar)
जिस कोम के बच्चे सस्ती किताबों की जगह महंगे जूते खरीदें
वोह कौम जूतों के ही लायक़ होती है
I missed your posts, ugh!
Yeah.siyasatdaan gutbandi ko bhuna rahe he aur hum teen saal ki umar se bhugar rahe he….good satire on racism.