मैनें हरमेश मल्होत्रा जी की फिल्म ‘अँखियों से गोली मारे’ भी उसी चाव से देखी जैसे श्याम बेनेगल जी की ‘सूरज का सातवां घोड़ा’. एक में दिल खोल कर हँसता; दिमाग घर भूल आता. दूजे में बगुले की तरह अपना दिमाग केंद्रित कर गंभीर बैठता. मुझे रघुवीर यादव और पप्पू कंघी जी में कोई फर्क नहीं नजर आया. हाँ, नजरिये जरूर अलग थे.
वैसे कई ब्लॉग पढ़ने वाले शायद न पप्पू कंघी को जानते हों, न रघुवीर यादव को. वो पहले ‘गूगल इमेज़’ पर इनका चेहरा देख लें. शायद कहीं देखा हो. और गर देखा हो, तो अब शायद फिर न दिखें. पप्पू कंघी नहीं रहे.
ये भी मुमकिन है कि ये मेरे ब्लॉग की पहली और आखिरी श्रद्धांजलि हो. रघुवीर यादव जी पे लिखने वाले और भी होंगें, पर पप्पू कंघी थोड़ा ‘चीप-क्लास’ लगता है. अमूमन लोग नाम बदलते हैं तो कुछ बेहतर बनाते हैं. पर बदरूद्दीन काजी को ‘जॉनी वाकर’, जॉन प्रकाश राव को ‘जॉनी लीवर’ और रज्जाक खान को ‘पप्पू कंघी’ पसंद आया. इन तीनों में भी पप्पू कंघी सबसे निचले स्तर पर रहे कई पैमानों पर, पर मेरी नज़र में उन पैमानों की कोई अहमियत नहीं.
कोई पप्पू कंघी तो कोई ‘बाबू बिसलेरी’ कहता. कोई कुछ भी न कहता. ऐसे कई कलाकार गुमनाम ही रह जाते हैं.
एक बुजुर्ग ने किस्सा सुनाया. सालों पहले वो और कुछ नौजवान बम्बई नगरिया गए, जब वो एक फिल्मी तिलिस्म था. आज भी है, पर उन दिनों हर किसी की बस की नहीं थी बम्बई. वो देखो राजेश खन्ना की कोठी. वो प्राण की. वो सामने दिलीप कुमार की. और उधर अमिताभ बच्चन जी. बड़ा शौक था कि किसी हीरो-हिरोईन के साथ फोटो खिचवाएं.
काफी घंटे इंतजार किया तो आखिर नवीन निश्चल नजर आए. काला चश्मा पहने सफेद ‘पद्मिनी प्रीमियर’ गाड़ी से उतरे. लोग जैसे ही पास गये. झट से गाड़ी में बैठ फुर्र. उफ्फ! क्या रूतबा? जबकि ये वो वक्त था जब बच्चन सा’ब की ‘शोले’ आ गयी थी और नवीन निश्चल वगैरा को कोई पूछता भी न था. थक हार के जब शाम ढलने को आया, तो मैकमोहन सिगरेट पीते नजर आए. मैकमोहन मतलब ‘शोले’ के ‘सांभा’. सब लपक पड़े. मैकमोहन ने भी दिल खोल कर बातें की. समझ नहीं आता कि असल स्टार कौन था?
पप्पू कंघी भी कुछ ऐसे ही स्टार थे. गोविंदा और मिथुन दा के फूहड़ चलचित्रों के सहायक कलाकार, जो कादर खान और शक्ति कपूर जैसे कलाकारों के दसवें हिस्से का स्क्रीन-स्पेस पाते. मगर पाते जरूर. भोजपुरी फिल्में. बी ग्रेड फिल्में. हर जगह नजर आते. उनके बिना ये फिल्में जैसे अधूरी होती.
मैं ये नहीं कहता कि आप उनकी फिल्में जरूर देखें. न ही उन्हें पद्मश्री या पद्मभूषन से नवाजें. उन्हें फिल्मी लोअर मिडिल क्लास में ही रहनें दें. चैन की नींद वहीं है.
बाकी राजकपूर जी का गाना है, “कहता है जोकर सारा जमाना. आधी हकीकत. आधा फसाना.”
सही कहा आपने । कई ऐसे ही चरित्र (या चरित्रहीन, जैसा भी नजरिया हो) अभिनेता स्टार्स के साये में गुम हो गये ।
क्या खूब लिखा है…. Marvel of a thought and very well written…. Perhaps I could relate to it…. कमाल!!