रेणुजी ने ‘मारे गये गुल्फाम’ में हीरामन से तीसरी कसम खिलवाई कि कभी नाचने वाली को गाड़ी पर नहीं बिठायेगा. अरसों बाद चेतन भगत जी ने भी ‘थ्री मिस्टेक्स ऑफ लाइफ’ में कहा कि अपने प्रिय मित्र की बहन से कभी इश्क न करें. ऐसे ही कई लक्षमण रेखायें शाहरूख खान जी और उनके चेले भी ये कहकर खींचते रहे कि दो पुरूष और महिला कभी बस अच्छे मित्र नहीं हो सकते. कुछ पकना जरूरी है.
खैर वो तो किस्से-कहानियों और फिल्मों की बाते हैं. छोटे शहरों के मुहल्लों में भी रस्म थी कि मुहल्ले की सारी समवयस्क लड़कियाँ बहन समान है. साइकिल से लोफरबाजी करनी हो तो दूसरे मोहल्ले निकलो; गर किसी दुसरे मोहल्ले के लड़के की साइकिल अपने मोहल्ले में दिखे तो हुड़क दें. इसी हुड़का-हुड़की में न अपने मुहल्ले में काम बनता, न दूजे मोहल्ले में. आधे बहनों को भी अंदाजा नहीं था कि उनके स्वघोषित कितने भाई उनकी रक्षा में मुस्तैद हैं?
मुस्लिम मुहल्ले में बुरका तो जो सही, धर्म का भी लोचा. वो लक्षमण रेखा तो लक्षमण खुद भी न लांघ पाते. उनके जमाने में खैर ये हिन्दू-मुस्लिम न थे पर मनुवाद की बेड़ियां तो थी ही. मतलब जाति की रेखायें खींच दें तो प्रेम-अवसर का प्रतिशत और घट जाता है. हालांकि कई मुनियों की बेटियाँ उनके छात्र क्षत्रियों के मत्थे बांध दी जाती. पर समय के साथ ये अधिकार भी जाता रहा. अपने टीचर की बेटियों पर नजर का मतलब फेल होने का सीधा-साधा रिस्क. गर गलती से मान भी गये तो सोचो जिसने इतनी बार क्लास में मुर्गा बनाया, वो ससुर बन जाए तो क्या-क्या न बनाए?
कई नियम और बनते गए. दूजा शहर गया तो अपने शहर की लड़की बहन समान. दूजा राज्य गया तो अपने राज्य की लड़कियों को ट्रेन से चढ़ाने-उतारने का जिम्मा. दूजा देश गया तो भारतीय लड़कियों को बार में गोरों से बचाता फिरता. पैदायशी बॉडीगार्ड लक्षमण तो बन गया, राम का कोई अता-पता नहीं. जैसे सीता की अग्रिम जीवन बीमा हमारी जिम्मेदारी हो.
कई धर्मों में, खासकर हिंदू धर्म में शादियाँ टूट जाती है गर पिछले ५-७ पुश्तों में भी कोई रिश्ता निकल आए. नियम मेडिकल विज्ञान के हिसाब से भी ठीक है. जन्मजात बिमारियों का अनुपात घटता है. ‘जेनेटिक पूल’ संतुलित होता है. एक लक्षमण रेखा और खींच गई. मतलब सात पुश्तों से हिसाब लगायें तो गणित के ‘फैक्टॉरियल थ्योरी’ से कुछ 5040 स्त्रियां साफ.
ये तो भारतवर्ष ही है. करोड़ों-अरबों की संख्या है. हर रिश्ते कहते हैं ऊपर से बनकर आते हैं. और सत्यत: कोई भी रेखा इस अथाह मानव-सागर को बांध नहीं सकती. अमूमन इच्छा हो तो विवाह निश्चित है. इच्छा न भी हो तो भी. इतनी ही रेखाएं पच्छिम में हो तो सब कंवारे रह जाये. तभी वहाँ ट्रैफिक सिग्नल कोई जंप करे न करे, ये लक्षमन-रेखा जरूर जंप करता है. अब क्या नाचनेवाली और क्या मोहल्ले वाली? जिधर देखो, वहीं सवेरा.