मुझे अफ्रीका के बीहड़ जंगलों में छोड़ दें, तो भी शायद बंटू भाषा सीख पिग्मियों के साथ घुल-मिल जाता. भाला लेकर लकड़बग्घा नहीं तो बकरी मार कर ले ही आता. अक्सर संस्कृतियों में डिस्पीरीन की गोली की तरह घुलने की कोशिश करता हूँ. लेकिन अक्सर लोग चेहरा देखकर भारतीय, भाषा में एक काउ-बेल्ट का तड़का देखकर बिहारी, और उपनाम सुनकर लगभग मेरी जड़ों तक पहुँच जाते है. उपनाम गर ‘कास्प्रोवस्की’ रख भी लूँ, तो भी अटपटा ही लगेगा.
वैसे मेरे ब्लॉग के नये मेहमानों को बता दूँ, ‘वामागांधी’ कुछ ऐसा ही हथियाया नाम है. गांधी परिवार से मेरा कुछ लेना-देना नहीं. वैसे जिनका कुछ लेना-देना है, वो भी स्पष्टीकरण देते फिरते हैं कि कौन से वाले गांधी से जुड़े हैं.
बच्चन साहब की ‘अग्निपथ’ देखी, तो बड़ा मलाल हुआ कि मेरा भी नाम कुछ ‘विजय दीनानाथ चौहान’ सरीखे होता. प्रवीण झा तो शुरू होते ही खत्म हो जाता है. फिर लगा कि पारसी तो शान से ‘दारूवाला’, ‘बाटलीवाला’ जैसे उपनाम रखते हैं. उन्हें कोई मलाल नहीं.
जब दलितों को नौकरी और ओहदे मिलने शुरू हुए, उन्होंने अपने उपनाम गायब कर नये नाम रखने शुरू किये. सुधीर पासवान ने आठवीं में अपना नाम ‘सुधीर विनोद’ कर लिया. पासपोर्ट में नाम ‘सुधीर’, उपनाम ‘विनोद’. ऐसे ही ‘राजीव रंजन’, ‘कुनाल किशोर’ जैसे नाम आने शुरू हो गये.
दलित ही क्या, ब्राह्मनों ने भी, राजपूतों ने भी. ये समाजवाद नहीं था, बस पक्षपात न हो इसकी छोटी कोशिश थी. नये शहर जाता तो फोनबुक में ‘झा’ लोगों को ढूंढता. फोन घुमाता तो वो भी दिल खोल कर बात करते, कुछ न कुछ रिश्ता भी निकाल लेते.
उदित नारायण भी ‘झा’ हैं, सीना तान कर कहता. जैसे हमारी बारात में खटिया पर बैठ कर हारमोनिया बजा गाते हों, ‘जानम देख लो मिट गई दूरियाँ’.
आलोक नाथ जी भी ‘झा’ हैं, इसकी भी शेखी खूब बघारी. उनपर चुटकुले बनने शुरू हुए तो कन्नी काट ली. अजी और तो और, चेतन भगत के किसी उपन्यास के एक चरित्र का नाम ‘झा’ है, उसपे भी उछलने लगे. फेसबुक पे जितनी सुन्दर लड़कियाँ ‘झा’ हों, उनपे नजर भी रखता. गर छोटे कपड़ों या दारू पीते फोटो दिखती, तो लगता जैसे परिवार की लड़की बिगड़ गई. जान न पहचान.
दक्खिन गया तो नाम कुछ ‘प्रवीणकुमार जे.’ लिखता. मेरे परम मित्र ‘सनतकुमार एच.’ को मेरी धाराप्रवाह कन्नड़ सुन भनक भी नहीं हुई कि मैं बिहारी हूँ. वैसे मेरा ‘जे’ खुलता तो तीन अक्षरों में निपट लेता. उनकी ‘एच’ खोलने की चेष्टा कि तो २१ अक्षरों के बाद भी ‘to be continued’ मुद्रा में था.
हर सरदार ‘सिंह’ होते हैं, ये लगभग पक्का है लेकिन हर ‘सिंह’ सरदार नहीं होते. महाराष्ट्र निकल जाओ, तो आखिरी अक्षर ‘कर’ जैसे तेंदुलकर, अगरकर. वैसे मेरे फेसबुक मित्रों मे ४४ पाटिल भी हैं.
चट्टोपाध्याय चटर्जी बन गये, बंदोपाध्याय बनर्जी. चतुर्वेदी चौबे और द्विवेदी दूबे. त्रिवेदी जी बस अड़े रहे.
विदेश आकर उपनामों की दूरियाँ लगभग मिट गई. कुछ भी नाम हो, सारे उपनामों को मिला जुला कर ये ‘इंडियन’ ही कहते हैं.
First up, great to have you back here after so many days. Been busy it seems.
This is such a hilarious post. Satire is always welcome. Hindi me aapki taraf se aur naye posts padhne ki umeed rakhta hu.
Happy blogging and God bless. 🙂
Nice post. Except for benefits of affirmative actions, who cares for surnames nowadays. It just continues as a part of family tradition until you want to go with it.
bahut umda
kya baat hai! Superb. still laughing merrily!
that’s true an Indian becomes solely and only Indian after leaving the country.