अंग्रेजी में बहुभाषी को ‘multilingual’, द्विभाषी को ‘bilingual’ और एक भाषी को ‘american’ कहते हैं. पुराना चुटकुला है. हालांकि टेक्सास वाले थोड़े अमरिकी गँवारों की तरह अंग्रेजी बोलते हैं और न्यूयॉर्क वाले शब्दों को खीचकर नचाते हैं ब्रॉडवे के संगीत की तरह. पर भाषा एक ही है-अमेरिकन अंग्रेजी.
काफी साल विदेश में रहा, पर फिर भी फिल्मों में ‘सबटाइटल’ डालकर देखने में एक सूकून मिलता है. अंग्रेजी गानों में पहले दो-चार लाईन सुर में सुर मिला लेता हूँ, पर अंतरा आते ही आवाज धीमी कर ‘गूं-गूं’ करने लगता हूँ, और फिर वो पहली लाईन आते ही चिल्ला कर गाने लगता हूँ. वही कुमार शानू के रोमांटिक गाने लगा दो, हर अंतरे में ताल दे दूँ.
मेरे एक मित्र इंग्लैंड में पैदा हुए. उन्हें बस दो भाषायें आती है-बिहारी मगही और अंग्रेजी. दशकों पहले उनके माता-पिता बिहार से इंग्लैंड आए, घर में मगही का प्रयोग करते. बच्चा भी घर में ‘का हो’ और बाहर ‘हाउज लाईफ’ करने लग गया. ऐसे ही कई हार्ड कौर और हनी सिंह सरीखे पंजाबी भाषी ब्रिटिश भी हैं. शायद सनी लियोन जी को भी थोड़ी-मोड़ी आती हो.
कल नॉर्वे में किसी आवेदन-पत्र में मातृभाषा का कॉलम था. मेरी मातृभाषा तो बिहार के खास जगहों में बोली जाने वाली भाषा ‘मैथिली’ है. अब नॉर्वे वालों को कौन समझाए कि अब तो आठवीं अनुसूची में भी आ गया. फॉरम के नीचे हस्ताक्षर थे कि गलत सूचना पर कानूनी सजा. अरे नासपीटों, फिर मैथिली का कॉलम भी तो डालो! मैथिली तो क्या हिंदी भी नदारद. काउंटर वाले ने अंग्रेजी डालने को बोला. मैंने जिरह की. ‘मदर लैंग्वेज’ अगर ‘मदर’ ही न बोल पाए तो क्यूँ डालूँ? बड़ी मशक्कत के बाद एक ‘इंडिस्क’ कॉलम ढूँढा जो शायद हिंदी थी.
यूरोप के किसी भी देश में अगर उनकी भाषा थोड़ी-मोड़ी न सीखी, जीना मुश्किल. फ्रांस में फ्रेंच. जर्मनी में जर्मन. ऐसे ही डच, पोल्स्क, नॉर्स्क, स्वेन्स्क…. भारत में तो अब क्रॉसवर्ड या अन्य पुस्तक दुकानों में हिंदी किताबें नदारद हैं. मुंशी प्रेमचंद तक के अंग्रेजी अनुवाद हो गये. मैंनें सोचा पढ़ के देखूँ. अनुवादक की तो हवा निकल गई थी. हामिद का चिमटा ‘हामिद्स टॉंग (tongs)’ हो गया था. सच में कहानियों की टाँग मरोड़ के रख दी.
बच्चों को भी २६ अक्षर की अंग्रेजी सुलभ लगती है. थोड़ी हिंदी सिखाने की कोशिश की, ‘श’, ‘ष’, ‘स’ आते ही घुटने टेक दिये. वहाँ तो एक ‘s’ से काम निकल जाए.
ये नहीं कहता, अंग्रेजी आसान है. एमिली ब्रॉंट की किताब शब्दकोश लेकर पढ़ता हूँ, फिर भी गले नहीं उतरती. कई नव-किशोरियों के ब्लॉग भी पढ़ता हूँ तो शब्दों की लड़ी लगा देते हैं. अमिताव घोष भी खूब टशन मारते हैं. पर हिंदी का क्या?
ले दे कर शायद एक राजकमल प्रकाशन कुछ बोझ ढो रहा है, और कुछ नौसिखिए जिनकी प्रकाशित किताबें रेलवे प्लैटफार्म तक नहीं पहुँच पाती. अमेजन-फ्लिपकार्ट से हिंदी किताबें कौन उठाएगा? मैंने तो आधी हिंदी प्लैटफार्म से खरीद कर लंबी ट्रेन के सफर में ही पढ़ी. वैसे लड़कियों के साथ सफर करता, तो सिडनी शेल्डन या जेफ्री आर्चर जी की किताब चमकाता.
मुझे लगता है, कुछ भी कहो पत्रकारों ने थोड़ी-मोड़ी कमान पकड़ी हुई है. अब रवीश कुमार हो या रजत शर्मा, शब्दों के बड़े अच्छे और सुलभ पुलिंदे बनाते हैं. और चल भी रहे हैं, प्रशंसक भी हैं. मेरे कुछ पत्रकारिता से जुड़े मित्र भी मसालेदार हिंदी लिखते हैं. सुना है कुछ आई.आई.एम. वाले भी किताबें लिख रहे हैं.
क्या लगता है? दिया बुझने से पहले की फड़फड़ाहट है?
अंग्रेजी में ट्वीट करता हूँ #readhindi थोड़ा मैं भी फड़फड़ा लूँ, थोड़ा आप भी.