जब से दक्खिन जा बसा, नया साल मनाने लगा; नहीं तो दिल्ली के कोहरे में अजी कौन रजाई से निकले? थोड़ी ऊहापोह के बाद कन्याकुमारी और केरल पे सूई अटकी और हम निकल पड़े. कुछ पल बच्चों के साथ उछल-कूद, कुछ धर्मपत्नी के साथ समंदर किनारे रोमांटिक गूफ्तगू और कुछ यूँ ही मटरगश्ती.
अजी काहे की मटरगश्ती? गरीबों का समंदर निकला भारत का आखिरी छोर. न कोई कन्या, न कोई कुमारी. पिछले साल गोवा गया था, आँखे थक जाती थी जलपरियों से. कन्याकुमारी तो मछुआरों की बस्ती और विवेकानंद का पत्थर! मछुआरे ठहरे ईसाई. क्रिसमस की चहल-पहल अब भी थी. बच्चों के रेतीले मैदान में यीशु के जन्म के घास-फूस वाले मॉडल, और सुनहरी लड़ियों से सजा चमचमाता चर्च. चार कदम पे सालों पुराना कन्याकुमारी मंदिर भी स्वर्ण-सुसज्जित.
इस चमक-दमक में बेचारे विवेकानंद थोड़े आउट-ऑफ-प्लेस लगे. तहकीकात की तो पता लगा, पहले वहाँ चर्च बनने वाला था, जिसे हिंदू अस्मिता-रक्षन में विवेकानंद-रॉक बना दिया गया. स्वामी जी तो अपने शिकागो-ट्रिप से पूर्व बस तीन दिन आये थे, जैसे मैं नॉर्वे-ट्रिप से पूर्व. घूमने-फिरने बोटिंग-शोटिंग पे आये होंगे. तीन दिन में कौन सी फटाफट साधना? हालाँकि शिकागो का भाषण लाजवाब और अविस्मरणीय था, क्या पता यहीं कोने में ड्राफ्ट की गयी हो.
विवेकानंद जी से कहीं ऊँची काली सी मूर्ति भी कुछ दूर एक पत्थर पे नज़र आई. आस-पास रहने वालों में आधों को हवा न थी, है कौन ये महानुभाव? बड़ी मशक्कत के बाद एक अधेड़ उम्र के बंगाली भद्र-मानुष ने अपना पक्ष रखा. तमिल लोगों को जब ये अहसास हुआ कि ये पत्थर बंगाली विवेकानंद ने कब्जा कर लिया, तो उन्होंने भी बराबर के पत्थर पे अपने लोकल महान कवि को बिठा दिया- संत तिरूवल्लुवर!
छोटा सा आखिरी छोर- और पत्थरों की मारा-मारी. क्या करें, इतने धर्म-समुदाय जो ठहरे.
बेटी को मोबाइल में गूगल-मैप दिखाने लगा. ये देख इंडिया. कश्मीर से कन्याकुमारी तक. पठानकोट से मालदा तक!
Awesome
Great 🙂 Kanyakumari is still on my travel wishlist !
Sorry – I meant kuch naye khayal aur kuch nayi baatein! The autocorrect I tell you! 😉