कल फ्राईडे नाईट और शादी की सालगिरह का खुशनुमा कॉकटेल था, सोचा कुछ रंगबाजी हो जाये. वैसे मौका न भी हो, तो भी इस बर्फीले देश में फ्राईडे को सारा शहर रंग-बिरंगे जैकेट में शहर के केंद्र ‘सेंट्रम’ में उमड़ पड़ता है. ये देश के मेट्रो-शहरों वाला अमीरों का डांस-क्लब या बार वाला माहौल नहीं, छोटे शहरों का हाट-मेला जैसा जमावड़ा. वो देखो एंड्रयू और मोना अपने चुनमुन बच्चों को बर्फ के मैदान में गोल-गोल घूमा रहे हैं. वो अधेड़ महिला जैकेट के ठेले पे जिरह कर रही है. स्कूल के लड़के एक चंद्राकार पुलिये पे स्केटिंग करते धड़ाम-धड़ाम गिर रहे हैं. टोमारी को पुराना यार मिल गया, दोनों जोर-जोर से ठहाके लगा रहे हैं. मुझसे हर कोई ऐसे खुशी से मिल रहा है, जैसे हम कुंभ के बिछड़े हों.
जब से जेब में थोड़े पैसे आये, हाट-मेलों से नाता टूट गया था. दरभंगा के बस अड्डे पे छुटपन में सर्कस-मेले में गया था. स्कूल में खबर आई, रूस की सुंदर बालायें आई हैं. जैसे-तैसे जुगत लगा के, हम भी स्कूल से भाग मेले में शरीक हो लिये. बीड़ी की दुर्गंध, टूटी-फूटी कुर्सियाँ और खचा-खच भीड़! सवर्ण सभ्य परिवार से था. एक पल के लिये आत्म-ग्लानि हुई. फिर सोचा, भाड़ में जाये सवर्ण, हम भी तो गाँधीजी के चेले हैं. क्या गरीब और क्या अमीर? और रूस की गोरी होती कैसी है, ये भी तो देख लें. सुना है, जलपरी होती हैं! शेर-भालू के नाच देखे तो आग के रिंग में मोटरसाइकल. दिल दहल गया. तभी आकाश से परी अवतरित हुई, एक पतली रस्सी से लटकी करतब करती. सीटियों से माहौल गूंज गया. सामने कुर्सियों पे सब खड़े हो गये, और मैं उनके टांगों के बीच निकल बिल्कुल स्टेज के सामने. बौना जोकर फूहड़ गाना गा रहा है, “गोरकी पतरकी गे”. उत्सव का माहौल. सारे वर्ण, जाति, और ओहदा एक तरफ, और गोरी का हुस्न एक तरफ.
खैर, वक्त गुजरा. बुरा देखना और सुनना बंद कर दिया. गांधी जी का चेला जो हूँ. अच्छे लोगों के साथ उठना-बैठना. बीड़ी वालों से तौबा, सिगरेट वालों से तवज्जो. भोजपुरी फूहड़ गाने फिर कभी नहीं सुने और क्लासिकल में रूचि लाने लगा. जल्द ही साला मैं तो साहब बन गया.
विश्व के धनाढ्य देशों मे एक, जिसका विकास इंडेक्स सर्वोपरि है-नार्वे. वहाँ पहुँच फिर से मेले वाला माहौल. अमीर-गरीब का भेद ही नहीं. मेरे मकान का पेंट करने वाला मजदूर टॉम गले मिल रहा है. टॉम सालों पहले अल्बानिया के अनवर हुदा सरकार से त्रस्त ‘असाइलम’ लेके नार्वे आया था. मतलब तीसरी दुनिया का रेफूजी मजदूर एक अदना डॉक्टर से गले मिले. हद है! मैनें भी झटक दिया और तेज कदम बढ़ा आगे हो लिया. वहाँ थोड़ी दूर शायद किसी कंपनी के अमीरों का समूह था. धारा-प्रवाह नोर्स्क भाषा में बोल घुल-मिल गया. उनका नेता बोला, ‘याई एल्सकेर इंडिया. चिकेन तंदूरी!’ (मुझे भारत बहोत पसंद है. चिकेन तंदूरी)
मैं मुस्कुराया और बोला, “दू मॉ जेनेर गांधी” (आप गांधी भी जानते होंगे)
उसने हामी भरी और हंस कर कंधे पे मुक्का मारते कहा, “चिकेन तंदूरी!”. और हम हंसने लगे.
उपसंहार:
भीड़ में टॉम को ढूंढ दोस्ती की. गरीब क्या? रेफूजी क्या? और तीसरी दुनिया? ये बड़े-छोटे, भेदभाव की दुनिया ही शायद तीसरी दुनिया है. और भारत बस ‘सपोलों’ और ‘चिकेन तंदूरी’ का देश नहीं, ‘गांधी’ का देश है.