कल अपने २३वें व्हाट्स-ऐप ग्रुप का उदघाटन समारोह था, जिसका प्रादुर्भाव महज़ उन लोगों से हुआ, जिनकी तोंद निकली है. मेरे वो मित्र जो अपने उदर से असंतुष्ट हैं, शामिल हुये और स्वास्थ्यवर्द्धक पोस्ट फारवर्ड करने लगे. खाने-पीने की रणनीति बनी और यहाँ तक की आपस के उदरों की मौजूदा तस्वीरें भी शेयर हो गये. मामला गंभीर निकला और ऑड-इवेन प्रणाली पर योग और जिम की अदला-बदली तय की गयी. खैर, मूलत: एक और वजह मिल गयी ग्रुप बनाने की. जिरह और हास-परिहास की पुरानी आदत और कभी आत्म-चिंतन की वज़ह से अक्सरहाँ ग्रुप से बाहर-अंदर होता रहता हूँ. पर कौतूहल है कि हर दो मिनट में फोन को टटोलने पर मज़बूर कर देता. ये कैसी चुंबकीय गुलामी है? फेसबुक पे लाइक कितने तो व्हॉट्स-ऐप पे चुटकुले पे कोई भला हंसा क्यूँ नहीं? न हँसे मेरी बला से, अजी बिल्कुल ताजा भेजा था. साँप सूँघ गया क्या ग्रुप को? बस ऊहापोह सी लगी रहती.
ये माजरा पहले न था. ताश के पत्ते निकलते या पकौड़े तले जाते. चाय की दुकान पर एक-एक कर दोस्तों का जमावड़ा होता. काफिले आते-जाते, मुद्दे बदलते, वाद-विवाद होता, और हम अक्खड़ जमे रहते. आवाज में बुलंदी, नजर ऊँची और ठहाके ऐसे की नुक्कड़ पे बस अपना ही राज. कभी सिक्का जमता तो कभी किरकिरी होती, पर डटे रहते.
ऐसा नहीं कि टेलीफोन न था. चौक पे सरकारी औफिस में सस्ते में ट्रंक-कॉल बुक होती, एक छोटी खिड़की से रिसीवर पकड़ाते, और पीछे खड़े लाइन में लगे लोग दाँये-बाँये देख न सुनने का स्वाँग रचाते. अजी, कौन सी प्रेमिका से गूफ्तगू है? वो राँची वाले फूफा जी होंगे या दिल्ली वाले मामाजी. प्रेम-संलाप करना हो तो अगले चौराहे पे STD बूथ है, कटघरे में जितनी मरजी दबी आवाज में बतिया लो. बस ऊपर वो LED स्क्रीन पे मिनट देखते रहना! बड़े जालिम होते वो टेलीफोन वाले, हर तीन मिनट में पैसे दुगुना. 5 मिनट 59 सेकंड में जिसने झट से रिसीवर रखा, वो है चपल चतुर.
साल-दो साल की बुकिंग पे आखिर घर में भी फोन लग ही गया. क्या उत्सव का माहौल? पड़ोसी बधाई देते, और नंबर जरूर नोट कर जाते. शुक्र है अब चौक पे न जाना. झा-सा’ब के घर फोन जो लग गया. बात की बात, और मुफ्त की चाय सो अलग. और शामत हम बच्चों की, जो घंटे-दो घंटे मुहल्ले में फोन आने का संवाद लिये घूमते. ये तो धन्य टेलीफोन विभाग वाले की अक्सर फोन डेड रहता, और हम चैन की साँस लेते.
मेडिकल कॉलेज में भी यही फोन-बूथ का सिलसिला चलता रहा. रात को ११ बजे के बाद फोन के रेट कम हो जाते, और हमारी कतार लग जाती. आधी नींद में वार्तालाप भी कम होता, और पैसे बचे सो अलग. तभी एक क्रांति हुई. एक रेडियो-नुमा या भारी भरकम वायरलेस जैसी चीज, जो फोन का काम करती. हॉस्टल में इक्के-दुक्के अमीरजादों नें खरीदी और हम कौतूहलवश निहारते. जींस में लटकाते, तो आधी जींस एक तरफ खिसक जाती और कूल्हे अर्द्धनग्न. हाथ से कान तक लाने में यूँ प्रतीत होता, जैसे गाँडीव उठा रहे हो.
बड़ी कशमकश में हमने भी एक अभूतपूर्व जुगाड़ू निर्णय लिया. पाँच मित्रों ने मिल एक मोबाइल फोन खरीदा, और ये बंटवारा कर डाला कि हफ्ते में अमुक दिन इसका राजा कौन? दोस्त इसे पाँचाली कह उपहास करते, पर हम पाँडवों ने चीरहरण न होने दिया. ठीक-ठीक याद नहीं पर वो ‘मोटोरोला’ कंपनी का फोन सालों चला, अविवादित, अजीर्ण.
आज अपनी आई-फोन ६ प्लस की ग्लैमरस माशूका के होते हुये भी उस पाँचाली की बहोत याद आती है. रिंगटोन ऐसा कि पड़ोसी भी जाग ले, भरपूर वजन कि फोन उठाओ तो डोले-शोले बन जायें. सीना तना, आवाज में कड़क अंदाज. धीरे बोलने वाले, कमजोर दिलों वाले दूर ही रहे.
कॉफी पी रहा हूँ और सामने बैठी युवती के नजर उठने का इंतजार है. आधे घंटे से नजर झुकाये, अकेले खिलखिला रही है. अजी वो ही क्या, मैं, आप और ये सारा आशियाँ. कूबड़ों की तरह झुकी कमर, पागलों की तरह अकेले में हंसना, और तोंदूमलों का ग्रूप!
First I thought it was about that song “daba daba sa sahi dil me pyaar hai ki nahi.”
It is hilarious. Now since we have lighter phones those old generation ones look like dumbledores.
Thanks for sharing 🙂
Hilarious ☺
Your social humour is always a delight to read as compared to your apolitical ones with disclaimers, simply because the composition itself is a master stroke. Mashallah!! Kya khoob likha hai….
धन्यवाद कबीर जी. आप एक अदना कद्रदान हैं इस नाचीज़ के. इस रहस्य को रहस्य ही रहने दें कि अजी भला आखिर आप हैं कौन?