पहले ही बता दूँ, इस पोस्ट का आमिर जी से कोई लेना-देना नहीं है. पापा तो सब के कुछ न कुछ कहते हैं. बचपन में मेरी तरफ जब भी देखते, कम से कम पानी तो मंगवा ही लेते. तीन भाईयों में होड़ मच जाती. एक पानी भरता, दूजा उससे लेता, तीजा पिता को देता. पानी न हुआ, रिले रेस हो गया. ये सिलसिला सर्दियों में अक्सर टूट जाता. वो कंपकंपाती ठंड, और घर के बाहर का चापाकल. अजी कौन रजाई से निकलने की ज़हमत करे? पिता की तरफ देखना ही कम हो जाता. पास से गुजरते, तो सब बगले झाँकते.
मैं ये सिद्ध नहीं करना चाहता कि मनुष्य पैदायशी मतलबी होता है. वो तो खैर होता ही है. मनुष्य ही क्या? कैलाश की हिम-आच्छादित पर्वत और कठोर शीत में साक्षात् शिव के लिये पानी कौन लाता होगा? गणेश जी से तो मीलों दूर मानसरोवर तक चला न जाए. कार्तिक का मोर भी बरसात से पहले न नाचे. नंदी ने मानसरोवर ब्राँड के बोतल बना-बना देवताओं में खूब बाँचे और शिव माँगे तो जी! स्टॉक नहीं है. वो तो बस विष का घूँट पी के रह गये. जब नंदी की कालाबाजारी बढ़ी, खुद जटा में वो तकनीक लगायी, भागीरथी बहा दी. लो! पी लो जितना पीना है जगवासियों! मेक इन इंडिया.
पिता पिता होता है. या फिल्मी अंदाज़ में कहें तो ‘बाप से पंगा न लेना’. उसके लिये सब बेटे समान हैं. जब मरजी जिसे एक चाँटा लगा दिया. कान खींच दी. क्या पप्पू, क्या पिंटू? पप्पू-पिंटू की लड़ाई हुई, रोना-धोना, छीना-झपटी, तूतू-मैंमैं. पिता थके-हारे ऑफिस से आए, असहिष्णुता से दोनों को एक-एक थप्पड़ रसीद. दोनों पढ़ने बैठ गये.
अब कयास मत लगाओ. अराजनैतिक आदमी हूँ. हिंदू-मुस्लिम की तो बात ही न की मैंनें. और पप्पू-पिंटू भी तो बड़े हो गये. लड़ना तो बचपना था. दोनों साथ-साथ लड़कियाँ घूरते, ठिठोली करते. दाँत-काटी दोस्ती भाईयों की. नुक्कड़ पे पड़ोस का लड़का भिड़ गया. दोनों ने क्या धोया? आज तक दाँत में खिड़की बनी हुई है.
कब तक लड़कियाँ घूरते? उमर होने को आई, मुहल्ले में एक-एक कर डोली उठती गयी. पहले मुहल्ला, फिर शहर, फिर जिला. न लड़की बची, न लड़की की जात. भागे-भागे पिता के पास आए. पिता विजयी मुस्कान देकर बोले, “आ गये न रस्ते पे? जब तेरे बाप से कुछ न हुआ, तुमसे क्या खाक होगा?” पंडित बुलवाया, लड़की ढूँढी. गाजे-बाजे के साथ दोनों की शादी हुई. पप्पू की भी ऐश, पिंटू की भी.
मौसम बदला. हर साल की तरह. बस ठंड ज्यादा थी. सालों बाद ऐसी कड़ाके की पड़ी है. पिछली ठंड में तो दादाजी ‘हे राम’ कर चल बसे.
पिता को कभी जोड़ों का, कभी पीठ का दर्द.
और पप्पू-पिंटू फिर लड़ने लग गये. अब डिजिटल लड़ाई लड़ते हैं-फेसबुक-वॉट्सऐप वाले. हद कमीने फेसबुक वाले. लाइक-कमेंट दिये. थप्पड़ का तो ऑप्शन ही नहीं.
पापा ने पहले ही कहा था. बेटा नाम करेगा.
जय भोलेनाथ!
bahut sahi kaha apne facebook like k bare me..thappad ka to option hi bacha. yun hi naam kama lo aur yunhi badnaam ho jao..lolll
🙂 ‘असहिष्णुता से दोनों को एक-एक थप्पड़ रसीद. दोनों पढ़ने बैठ गये.’ ye to maine bhi experience kiya hai , lekin hamare yaha mummy thi referee, dono ko penalty kick lagakar back to kitchen.:)
Papa ke thappad ke bina koi padhai kare bhi toh kaise kare. Aur shaakahari log yeh nahi samjhenge, lekin jab paalak aur gobhi gosht ya machchli ki jagah parosa jaata tha, toh khaane ka swaad masaale se nahi, papa ke thappad se aata tha.